अजनबी ख्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ / राहत इन्दौरी


 

अजनबी ख्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ
ऐसे जिद्दी हैं परिंदे के उड़ा भी न सकूँ
फूँक डालूँगा किसी रोज ये दिल की दुनिया
ये तेरा खत तो नहीं है कि जला भी न सकूँ
मेरी गैरत भी कोई शय है कि महफ़िल में मुझे
उसने इस तरह बुलाया है कि जा भी न सकूँ
इक न इक रोज कहीं ढ़ूँढ़ ही लूँगा तुझको
ठोकरें ज़हर नहीं हैं कि मैं खा भी न सकूँ
फल तो सब मेरे दरख्तों के पके हैं लेकिन
इतनी कमजोर हैं शाखें कि हिला भी न सकूँ

 

 

अपनी छवि बनाई के जो मैं पी के पास गई / अमीर खुसरो


अपनी छवि बनाई के जो मैं पी के पास गई,
जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई।
छाप तिलक सब छीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के
बात अघम कह दीन्हीं रे मोसे नैंना मिला के।
बल बल जाऊँ मैं तोरे रंग रिजना
अपनी सी रंग दीन्हीं रे मोसे नैंना मिला के।
प्रेम वटी का मदवा पिलाय के मतवारी कर दीन्हीं रे
मोसे नैंना मिलाई के।
गोरी गोरी बईयाँ हरी हरी चूरियाँ
बइयाँ पकर हर लीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के।
खुसरो निजाम के बल-बल जइए
मोहे सुहागन किन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के।
ऐ री सखी मैं तोसे कहूँ, मैं तोसे कहूँ, छाप तिलक….।

 

ग़म से मिलता ख़ुशी से मिलता है / अब्दुल मजीम ‘महश्‍र’


ग़म से मिलता ख़ुशी से मिलता है
सिलसिला ज़िन्दगी से मिलता है

वैसे दिल तो सभी से मिलता है
उनसे क्यूँ आज़जी से मिलता है

है अजब जो मुझे रुलाता है
चैन दिन को उसी से मिलता है

हम जो हैं साथ ग़म उठाने को
फिर भी वह अजनबी से मिलता है

बिगड़ी बन जाएगी तेरी ‘महशर’
बे ग़रज़ गर किसी से मिलता है

 

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए


कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए ,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए !

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है.
चालों यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए !

ना हो कमीज तो पावों से पेट ढँक लेगें,
ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफ़र के लिए !

खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए !

वे मुतमईन है पत्थर पिघल नहीं सकता,
मै बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए !

तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की,
ये एहतियात जरुरी है इस बहार के लिए !

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मारें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए !

                                       –दुष्यंत कुमार त्यागी 

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले


हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले
मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले
हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले
हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले
जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले
खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले
कहाँ मयखाने का दरवाजा ‘गालिब’ और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले
MEANINGS-
चश्म-ऐ-तर – wet eyes
खुल्द – Paradise
कूचे – street
कामत – stature
दराजी – length
तुर्रा – ornamental tassel worn in the turban
पेच-ओ-खम – curls in the hair
मनसूब – association
बादा-आशामी – having to do with drinks
तव्वको – expectation
खस्तगी – injury
खस्ता – broken/sick/injured
तेग – sword
सितम – cruelity
क़ाबे – House Of Allah In Mecca
वाइज़ – preacher

मैं और मेरी आवारगी


फिरते हैं कब से दरबदर अब इस नगर अब उस नगर
एक दूसरे के हमसफ़र मैं और मेरी आवारगी
ना आशना हर रहगुज़र ना मेहरबाँ है एक नज़र
जायें तो अब जायें किधर मैं और मेरी आवारगी

हम भी कभी आबाद थे ऐसे कहाँ बरबाद थे
बिफ़िक्र थे आज़ाद थे मसरूर थे दिलशाद थे
वो चाल ऐसि चल गया हम बुझ गये दिल जल गया
निकले जला के अपना घर मैं और मेरी आवारगी

वो माह-ए-वश वो माह-ए-रूह वो माह-ए-कामिल हूबहू
थीं जिस की बातें कूबकू उस से अजब थी गुफ़्तगू
फिर यूँ हुआ वो खो गई और मुझ को ज़िद सी हो गई
लायेंगे उस को ढूँड कर मैं और मेरी आवारगी

ये दिल ही था जो सह गया वो बात ऐसी कह गया
कहने को फिर क्या रह गया अश्कों का दरिया बह गया
जब कह कर वो दिलबर गया ती लिये मैं मर गया
रोते हैं उस को रात भर मैं और मेरी आवारगी

अब ग़म उठायें किस लिये ये दिल जलायें किस लिये
आँसू बहायें किस लिये यूँ जाँ गवायें किस लिये
पेशा न हो जिस का सितम ढूँढेगे अब ऐसा सनम
होंगे कहीं तो कारगर मैं और मेरी आवारगी

आसार हैं सब खोट के इम्कान हैं सब चोट के
घर बन्द हैं सब कोट के अब ख़त्म है सब टोटके
क़िस्मत का सब ये खेल है अंधेर ही अंधेर है
ऐसे हुए हैं बेअसर मैं और मेरी आवारगी

जब हमदम-ओ-हमराज़ था तब और ही अन्दाज़ था
अब सोज़ है तब साज़ था अब शर्म है तब नाज़ था
अब मुझ से हो तो हो भी क्या है साथ वो तो वो भी क्या
एक बेहुनर एक बेसबर मैं और मेरी आवारगी.
                                           ……जावेद अख्तर

तेरे जाने के बाद


तेरे जाने के बाद दिल फिर उन्हीं रास्तों पर निकल गया है
बहुत कुछ वही है, बहुत कुछ बदल गया है
वही समंदर, वही समंदर का किनारा
और किनारे पर वही दरख़्त खड़े हैं
इन सबसे बढ़ कर रेत पर तेरे कदमों के निशान हैं
जिन पर आज भी किसी और के पैर नहीं पड़े हैं
.तेरे जाने के बाद दिल फिर उन्हीं रास्तों पे निकल गया है
                                                                   ………मासूम शायर 

एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़


एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़
इक ज़रूरत से जाता था बाज़ार
ज़ोफ-ए-पीरी से खम हुई थी कमर
राह बेचारा चलता था रुक कर
चन्द लड़कों को उस पे आई हँसी
क़द पे फबती कमान की सूझी
कहा इक लड़के ने ये उससे कि बोल
तूने कितने में ली कमान ये मोल
पीर मर्द-ए-लतीफ़-ओ-दानिश मन्द
हँस के कहने लगा कि ए फ़रज़न्द
पहुँचोगे मेरी उम्र को जिस आन
मुफ़्त में मिल जाएगी तुम्हें ये कमान
                                  —-अकबर इलाहाबादी 

हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते


हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते
मरते हैं वले उन की तमन्ना नहीं करते

दर पर्दा उन्हें ग़ैर से है रब्त-ए-निहानी
ज़ाहिर का ये पर्दा है कि पर्दा नहीं करते

यह बाइस-ए-नौमीदि-ए-अर्बाब-ए-हवस है
“ग़ालिब” को बुरा कहते हो अच्छा नहीं करते
                                 ——मिर्ज़ा ग़ालिब 

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें


कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें

जीवन-सरिता की लहर-लहर,
मिटने को बनती यहाँ प्रिये
संयोग क्षणिक, फिर क्या जाने
हम कहाँ और तुम कहाँ प्रिये।

पल-भर तो साथ-साथ बह लें,
कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें।
आओ कुछ ले लें औ’ दे लें।

हम हैं अजान पथ के राही,
चलना जीवन का सार प्रिये
पर दुःसह है, अति दुःसह है
एकाकीपन का भार प्रिये।

पल-भर हम-तुम मिल हँस-खेलें,
आओ कुछ ले लें औ’ दे लें।
हम-तुम अपने में लय कर लें।

उल्लास और सुख की निधियाँ,
बस इतना इनका मोल प्रिये
करुणा की कुछ नन्हीं बूँदें
कुछ मृदुल प्यार के बोल प्रिये।

सौरभ से अपना उर भर लें,
हम तुम अपने में लय कर लें।
हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें।

जग के उपवन की यह मधु-श्री,
सुषमा का सरस वसन्त प्रिये
दो साँसों में बस जाय और
ये साँसें बनें अनन्त प्रिये।

मुरझाना है आओ खिल लें,
हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें

                                         -भगवती चरण वर्मा